पिछले अध्याय में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया था कि माया के तीन गुणों से रहित होकर ही जीव अपने दिव्य लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि इन गुणों से परे जाने का सबसे उत्तम उपाय भगवान की अनन्य भक्ति में तल्लीन होना है। ऐसी भक्ति में तल्लीन होने के लिए हमें मन को संसार से विरक्त कर उसे केवल भगवान में अनुरक्त करना होगा। इसलिए संसार की प्रकृति को समझना अति आवश्यक है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन की संसार के प्रति विरक्ति विकसित करने में उसकी सहायतार्थ उसे भौतिक संसार की प्रकृति को प्रतीकात्मक शैली में समझाते हैं। वे भौतिक संसार की तुलना उल्टे 'अश्वत्थ' के वृक्ष से करते हैं। देहधारी आत्मा इस वृक्ष की उत्पत्ति के स्रोत आदि को समझे बिना एक जन्म से दूसरे जन्म में इस वृक्ष की शाखाओं में घूमती रहती है। इस वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर होती हैं क्योंकि इसका स्रोत भगवान है। वेदों में वर्णित सकाम कर्मफल इसके पत्तों के समान हैं। इस वृक्ष को माया के तीनों गुणों द्वारा सींचा जाता है। ये गुण विषयों को जन्म देते हैं जोकि वृक्ष की ऊपर लगी कोंपलों के समान हैं। कोंपलों से जड़ें फूट कर प्रसारित होती हैं जिससे वृक्ष और अधिक विकसित होता है। इस अध्याय में इस प्रतीकात्मकता को विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है जिससे कि यह ज्ञात हो सके कि कैसे देहधारी आत्मा इस संसार रूपी वृक्ष की अज्ञानता के कारण निरंतर बंधनो में फंसी रहकर कष्ट सहन कर रही है। इसलिए श्रीकृष्ण समझाते हैं कि विरक्ति रूपी कुल्हाड़ी से इस वृक्ष को काट डालना चाहिए। फिर हमें वृक्ष के आधार की खोज करनी चाहिए जोकि स्वयं परमेश्वर हैं। परम स्रोत भगवान को खोजकर हमें इस अध्याय में वर्णित पद्धति के अनुसार उनकी शरणागति ग्रहण करनी चाहिए तभी हम भगवान के दिव्य लोक को पा सकेंगे जहाँ से हम पुनः इस लौकिक संसार में नहीं लौटेंगे। श्रीकृष्ण आगे वर्णन करते हैं कि उनका अभिन्न अंश होने के कारण जीवात्माएँ दिव्य हैं। किन्तु माया के बंधन के कारण वे मन सहित छः इन्द्रियों के साथ संघर्ष करती रहती हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि यद्यपि आत्मा दिव्य है किन्तु फिर भी वह विषयों के भोग का आनंद लेती है। श्रीकृष्ण यह भी बताते हैं कि मृत्यु होने पर आत्मा अपने वर्तमान जन्म के मन और सूक्ष्म इन्द्रियों सहित नये शरीर में प्रवेश करती है। अज्ञानी न तो शरीर में आत्मा की उपस्थिति का अनुभव करते हैं और न ही मृत्यु होने पर उन्हें आत्मा के देह को त्यागने का आभास होता है। किन्तु योगी ज्ञान चक्षुओं और मन की शुद्धता के साथ इसका अनुभव करते हैं। इसी प्रकार भगवान भी अपनी सृष्टि में व्याप्त हैं लेकिन ज्ञान चक्षुओं से ही उनकी उपस्थिति का अनुभव किया जा सकता है। यहाँ श्रीकृष्ण प्रकट करते हैं कि संसार में भगवान के अस्तित्व को और उनकी अनन्त महिमा को जो सर्वत्र प्रकाशित है, कैसे जान सकते हैं। इस अध्याय का समापन क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम शब्दों की व्याख्या के साथ होता है। क्षर भौतिक जगत की नश्वर वस्तुएँ हैं। अक्षर भगवान के लोक में निवास करने वाली मुक्त आत्माएँ हैं। पुरुषोत्तम का अर्थ परमात्मा है जो संसार का नियामक और निर्वाहक है। वह विनाशी और अविनाशी पदार्थों से परे है। हमें अपना सर्वस्व उस पर न्योछावर करते हुए उसकी आराधना करनी चाहिए।
पुरुषोतम भगवान ने कहाः संसार रूपी अश्वत्थ वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर तथा इसकी शाखाएँ नीचे की ओर होती हैं। इसके पत्ते वैदिक मंत्र हैं और जो इस वृक्ष के रहस्य को जान लेता है उसे वेदों का ज्ञाता कहते हैं।
इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर तथा नीचे की ओर फैली हुई हैं जी त्रिगुणों द्वारा पोषित होती हैं। इन्द्रियों के विषय कोंपलों के समान हैं। जो वृक्ष की जड़ें नीचे की ओर भी फली होती हैं जो मानव को कर्म से बाँधती हैं।
इस संसार में इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं हो सकता और न ही इसके आदि, अंत और अस्तित्व को जाना जा सकता है। अतः इस गहन जड़ों वाले अश्वत्थ वृक्ष को विरक्ति रूपी शस्त्र से काट देना चाहिए। तभी कोई इसके आधार को जान सकता है। वह आधार परम प्रभु हैं जिनसे ब्रह्माण्ड का अनादिकाल से प्रवाह हुआ है और उनकी शरण ग्रहण करने पर फिर कोई इस संसार में लौट कर नहीं आता।
वे जो अभिमान और मोह से मुक्त रहते हैं एवं जिन्होंने आसक्ति पर विजय पा ली है, जो निरन्तर अपनी आत्मा और भगवान में लीन रहते हैं, जो इन्द्रिय भोग की कामना से मुक्त रहते हैं और सुख-दुःख के द्वन्द्वों से परे हैं, ऐसे मुक्त जीव मेरा नित्य ध मि प्राप्त करते हैं।
न तो सूर्य, न ही चन्द्रमा और न ही अग्नि मेरे सर्वोच्च लोक को प्रकाशित कर सकते हैं। वहाँ जाकर फिर कोई पुनः इस भौतिक संसार में लौट कर नहीं आता।
इस जीवलोक की आत्माएँ मेरा शाश्वत अणु अंश हैं। लेकिन माया के बंधन के कारण वे मन सहित छः इन्द्रियों के साथ संघर्षरत करती हैं।
जिस प्रकार से वायु सुगंध को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है, उसी प्रकार से आत्मा जब पुराने शरीर का त्याग करती है और नये शरीर में प्रवेश करती है उस समय वह अपने साथ मन और इन्द्रियों को भी ले जाती है।
कान, आंख, त्वचा, जिह्वा और नासिका के समूह मन को अधिष्ठित कर देहधारी आत्मा इन्द्रिय विषयों का भोग करती है।
अज्ञानी जन आत्मा का उस समय अनुभव नहीं कर पाते जब यह इन्द्रिय विषयों का भोग करती है और न ही उन्हें इसके शरीर से प्रस्थान करने का बोध होता है लेकिन वे जिनके नेत्र ज्ञान से युक्त होते हैं वे इसे देख सकते हैं।
भगवत्प्राप्ति के लिए प्रयासरत योगी यह जान लेते हैं कि आत्मा शरीर में प्रतिष्ठित है किन्तु जिनका मन शुद्ध नहीं है वे प्रयत्न करने के बावजूद भी इसे जान नहीं सकते।
यह जान लो कि मैं सूर्य के तेज के समान हूँ जो पूरे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है। सूर्य का तेज और अग्नि की दीप्ति मुझसे ही उत्पन्न होती है।
पृथ्वी पर व्याप्त होकर मैं सभी जीवों को अपनी शक्ति द्वारा पोषित करता हूँ। चन्द्रमा के रूप में मैं सभी पेड़-पौधों और वनस्पतियों को जीवन रस प्रदान करता हूँ।
मैं सभी जीवों के उदर में जठराग्नि के रूप में रहता हूँ, श्वास और प्रश्वास के संयोजन से चार प्रकार के भोजन को मिलाता और पचाता हूँ।
मैं समस्त जीवों के हृदय में निवास करता हूँ और मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और विस्मृति होती है। केवल मैं ही सभी वेदों द्वारा जानने योग्य हूँ, मैं वेदांत का रचयिता और वेदों का अर्थ जानने वाला हूँ।
सृष्टि में दो प्रकार के जीव हैं-क्षर और अक्षर। भौतिक जगत के सभी जीव नश्वर हैं और मुक्त जीव अविनाशी हैं।
इनके अतिरिक्त एक परम सर्वोच्च रास्ता है जो अक्षय परमात्मा है। वह तीनों लोकों में नियंता के रूप में प्रविष्ट होता है और सभी जीवों का पालन पोषण करता है।
मैं नश्वर सांसारिक पदार्थों और यहाँ तक कि अविनाशी आत्मा से भी परे हूँ इसलिए मैं वेदों और स्मृतियों दोनों में ही दिव्य परम पुरूष के रूप में विख्यात हूँ।
वे जो संशय रहित होकर मुझे पुरुषोत्तम के रूप में जानते हैं, वास्तव में वे पूर्ण ज्ञान से युक्त हैं। हे अर्जुन! वे पूर्ण रूप से मेरी भक्ति में तल्लीन रहते हैं।
हे निष्पाप अर्जुन! मैंने तुम्हें वैदिक ग्रंथों का अति गुह्य सिद्धान्त समझाया है। इसे समझकर मनुष्य प्रबुद्ध हो जाता है और अपने प्रयासो में परिपूर्ण हो जाता है।